शब्द का अर्थ
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धातु :
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स्त्री० [सं०√धा+तुन्] १. वह मूल तत्त्व जिससे कोई चीज बनी हो। पदार्थ या वस्तु का उपादान। २. पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँचों महाभूतों में से प्रत्येक जो अलग-अलग या पदार्थों की रचना या सृष्टि करते हैं। ३. शरीर को धारण करने या बनाये रखनेवाले तत्त्व जिनकी संख्या वैद्यक में ७ कही गई है। यथा—रस, रक्त, मांस, भेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र। विशेष—कहा गया है कि जो कुछ हम खाते—पीते हैं, उन सबसे क्रमात् उक्त सात धातुएँ बनती हैं, जिनसे हमारा शरीर बनता है। कुछ लोग वात, पित्त और कफ की गणना भी धातुओं में ही करते हैं। कुछ लोग इन सात धातुओं में केश, त्वचा और स्नायु को भी सम्मिलित करके इनकी संख्या १॰. मानते हैं। ४. कुछ विशिष्ट प्रकार के खनिज पदार्थ जिनकी संख्या हमारे यहाँ ७ कही गई है। यथा—चाँदी, जस्ता, ताँबा, राँगा, लोहा, सीसा, सोना आदि। विशेष—उक्त सात धातुओं के सिवा हमारे यहाँ वैद्यक में सात उपधातुएँ भी कही गई हैं। काँसा तूतिया पीतल रूपामक्खी, सोनामक्खी, शिलाजीत, और सिन्दूर। इसके सिवा खड़िया, गंधक मैनसिल आदि सभी खनिज पदार्थों की गिनती हमारे यहाँ धातुओं में होती है। परन्तु आधुनिक विज्ञान की परिभाषा के अनुसार धातु उस खनिज पदार्थ को कहते हैं जो चमकीला तो हो, परन्तु पारदर्शी न हो, जिसमें ताप, विद्युत आदि का संचार होता हो, जो कूटने, खींचने पीटने आदि पर बढ़ सके अर्थात् जिसके तार और पत्तर बन सके। इन सात धातुओं के सिवा काँसा, पीतल आदि धातु ही है। खानों में ये धातुएँ अपने विशुद्ध रूप में नहीं निकलती, बल्कि उनमें अनेक दूसरे तत्त्व भी मिले रहते हैं। उन मिश्रित रूपों को साफ करने पर धातुएँ अपने बिलकुल शुद्ध रूप में आती हैं। ५. संस्कृत व्याकरण में, क्रियाओं के वे मूल रूप जिससे उनके भिन्न-भिन्न विकारी रूप बनते हैं। जैसे—अस्,कृ,घृ,भू आदि। विशेष-इन्ही के आधार पर अब हिन्दी में भी कर, खा, जा, आदि रुप धातु माने जाने लगे हैं। ६.गौतम बुद्ध अथवा अन्य बौद्ध महापुरुषों की अस्थियाँ जिनको उनके अनुयायी डिब्बों में बन्द करके स्मारक रूप में स्थापित करते थे। ७. बौद्ध दर्शन में वे तत्त्व या शक्तियां जिनसे सब घटनाएँ होती हैं। ८. पुरुष का वीर्य। शुक्र। मुहा०—धातु गिरना या जाना=पेशाब के रास्ते या उसके साथ वीर्य का पतला होकर निकलना जो एक रोग है। ९. परमात्मा। परब्रह्म। १॰..आत्मा। १ १. इंद्रिय। १ २. अंश खंड या भाग। १ ३. पेय पदार्थ। |
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धातु-काशीस (कसीस) :
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पुं० [मध्य० स०] दे० ‘कसीस’। |
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धातु-क्षय :
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पुं० [ष० त०] १. खाँसी का रोग जिससे शरीर क्षीण होता है। २. प्रमेह आदि रोग जिनेस धातु अर्थात् वीर्य का क्षय होता है। ३. क्षयरोग। |
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धातु-गर्भ :
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पुं० [ब० स०] वह डिब्बा या पिटारी जिसमें बौद्ध लोग बुद्ध या अपने अन्य साधु महात्माओं के दांत या हड्डियाँ आदि सुरक्षित रखते हैं। देहगोप। |
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धातुगोप :
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पुं०=धातु-गर्भ। |
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धातुघ्न :
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वि० [सं० धातु√हन् (मारना)+टक्] धातु को नष्ट करने या मारनेवाला। पुं० वह पदार्थ जिससे शरीर का धातु नष्ट हो। जैसे—काँजी, पारा आदि। |
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धातु-चैतन्य :
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वि० [ब० स०] धातु को जाग्रत तथा चैतन्य करनेवाला। |
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धातुज :
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वि० [सं० धातु√जन् (उत्पत्ति)+ड] धातु से उत्पन्न, अर्थात् निकला या बना हुआ। पुं० खनिज या शैलज तेल। |
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धातु-द्रावक :
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वि० [ष० त०] धातु को गलाने या पिघलानेवाला। पुं० सुहागा जिसके योग से सोना आदि धातुएँ गलाई जाती हैं। |
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धातु-नाशक :
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वि०, पुं० [ष० त०]=धातुघ्न। |
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धातुप :
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पुं० [सं० धातु√पा (रक्षा)+क] वैद्यक के अनुसार शरीर का वह रस या पतला धातु जो भोजन के उपरांत तुरन्त बनता है और जिससे शरीर की अन्य धातुओं का पोषण होता है। |
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धातु-पाठ :
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पुं० [ब० स०] पाणिनी कृत संस्कृत व्याकरण के अनुसार उन धातुओं अर्थात् क्रियाओं के मूलरूपों की सूची जो सूत्रों से भिन्न है। (यह सूची भी पाणिनी की ही प्रस्तुत की हुई मानी जाती है)। |
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धातु-पुष्ट :
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वि० [ब० स०] शरीर का वीर्य बढ़ाने तथा पुष्ट करनेवाला। |
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धातु-पुष्पिका :
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स्त्री० [ब० स०, ङीष्+कन्—टाप्, ह्रस्व] धव या धौ का फूल। |
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धातु-पुष्पी :
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[ब० स०, ङीष्]=धातु-पुष्पिका। |
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धातु-प्रधान :
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पुं० [स० त०] वीर्य। (डिं०) |
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धातुबैरी :
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पुं० [सं० धातुवैरिन्] गंधक। |
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धातुभृत् :
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वि० [सं० धातु√भृ (पोषण)+क्विप्] जिससे धातु का पोषण हो। पुं० पर्वत। पहाड़। |
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धातुमत्ता :
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स्त्री० [सं० धातुमत्+तल्—टाप्] धातुमान होने की अवस्था, गुण या भाव। |
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धातुमय :
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वि० [सं० धातु+मयट्] १. जिसमें धातु मिली हो। धातु से युक्त। २. (प्रदेश या स्थान) जिसमें धातुओं आदि की खाने हों। |
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धातु-मर्म :
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पुं०=धातुवाद। (देखें) |
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धातु-मल :
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पुं० [ष० त०] १. शरीरस्थ धातुओं के विकारी अंश जो कफ, नख, मैल आदि के रूप में शरीर से बाहर निकलते हैं। २. धातुओं आदि को गलाने पर उनमें से निकलनेवाला फालतू या रद्दी अंश। खेड़ी। (स्लैग) |
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धातु-माक्षिक :
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पुं० [मध्य० स०] सोनामक्खी नामक उपधातु। |
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धातु-मान् (मत) :
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वि० [सं० धातु+मतुप्] जिसमें या जिसके पास धातुएँ हों। |
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धातुमारिणी :
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स्त्री० [सं० धातुमारिन्+ङीष्] सुहागा। |
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धातु-मारी (रिन्) :
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पुं० [सं० धातु√मृ (मरना)+णिच्+णिनि] गँधक। |
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धातुयुग :
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पुं० [ष० त०] मानव जाति के इतिहास में वह युग जब उसने पहले पहल धातुओं का उपयोग करना प्रारंभ किया था। और जो प्रस्तर-युग के बहुत बाद आया था। (मैटलिक एज) |
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धातुराग :
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पुं० [मध्य० स०] ऐसा रंग, जो धातुओं में से निकलता हो अथवा उनके योग से बनाया जाता हो। जैसे—ईंगुर, गेरू आदि। |
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धातु-राजक :
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पुं० [ष० त०+कन्] प्रधान या श्रेष्ठ शरीरस्थ धातु-शुक्र (वीर्य)। |
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धातु-रेचक :
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वि० [ष० त०] (वस्तु) जिसके सेवन से धातु का स्खलन हो। |
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धातु-वर्द्धक :
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वि० [ष० त०] धातु (वीर्य) का अभिवर्द्धन करनेवाला। |
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धातु-वल्लभ :
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पुं० [स० त०] सुहागा। |
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धातु-वाद :
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पुं० [ष० त०] १. वह कला या विद्या जिससे खान से निकली हुई कच्ची धातुएँ साफ की जाती और एक में मिली हुई कई धातुएँ अलग-अलग की जाती हैं। (इसकी गिनती ६४ कलाओं में की गई है) २. भिन्न-भिन्न धातुओं से सोना बनाने की विद्या। कीमियागरी। ३. रसायन शास्त्र। |
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धातुवादी (दिन्) :
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पुं० [सं० धातुवाद+इनि] १. वह जो धातुवाद का अच्छा ज्ञाता हो। २. रसायन शास्त्र का ज्ञाता। |
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धातु-विज्ञान :
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पुं० [ष० त०] वह विज्ञान या शास्त्र जिसमें इस बात का विवेचन होता है कि धातु में क्या क्या गुण या विशेषताएँ होती हैं, उसकी भौतिक रचना कैसे हुई है, किस प्रकार परिष्कृत या शुद्ध की जाती हैं और उन्हें किस प्रकार मिलाकर भिन्न वस्तुएँ बनाई जाती हैं। (मेटलर्जी) |
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धातु-बैरी (रिन्) :
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पुं० [ष० त०] गंधक। |
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धातु-शेखर :
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पुं० [ष० त०] १. कसीस। २. सीसा। |
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धातु-संज्ञ :
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पुं० [ब० स०] सीसा। |
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धातु-स्तंभक :
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वि० [ष० त०] (औषध या पदार्थ) जो वीर्य को शरीर में रोक रखे और जल्दी से निकलने या स्खलित न होने दे। |
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धातुहन :
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पुं० [सं० धातु√हन् (नष्ट करना)+अच्] गंधक। |
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